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पेट्रोल-डीजल खरीदा तो उस पर टैक्स कितना लगा?

राजीव रंजन झा : अपनी कुछ खरीदारियों की रसीदें देख रहा था। एक रसीद रेस्टोरेंट की है – कुल 221 रुपये की।

इसमें 12.50% वैट के 24.50 रुपये शामिल हैं। केबल वाले ने अभी-अभी हाल में बिल देना शुरू कर दिया है। इसके कुल 300 रुपये के ताजा बिल में 40 रुपये का मनोरंजन कर शामिल है। आप सिनेमा का टिकट खरीदें तो आपको पता चलता है कि कितने पैसे सिनेमा हॉल चलाने वाली कंपनी के पास रहेंगे और कितने पैसे सरकार के पास जायेंगे। आपको अपनी तमाम खरीदारियों की रसीदों में यह दिख जायेगा कि कितने पैसे आपने वास्तव में विक्रेता को दिये, और कितने पैसे सरकार के पास जा रहे हैं।
लेकिन अब जरा पेट्रोल या डीजल की अपनी कोई रसीद निकाल कर देख लें। आपको बस इतना पता चलेगा कि कुल कितने पैसे देने पड़े। कितना टैक्स लगा साहब? आपको नहीं पता। कुछ समय पहले, जब डीजल के दाम बढ़े थे, तो इंडियन ऑयल के वित्त निदेशक जी से मैंने यह सवाल पूछ लिया। उनसे पूछा कि रिफाइनरी से बाहर जब पेट्रोल-डीजल बाहर आता है तो उस वक्त उस पर आपकी लागत कितनी बैठती है, और खुदरा कीमत में आपको कितना मिलता है, टैक्स में कितना जाता है? टीवी चैनल पर सीधे प्रसारण में उन्होंने सवाल गोल कर दिया, कह दिया कि मालूम नहीं।
सही बात है। इतने बड़े आदमी, दुनिया भर की चीजों में दिमाग फँसा रहता है। ऐसी छोटी-मोटी बातें उन्हें कहाँ पता होंगी? उन्हें तो बस हर वक्त रटा रहता है कि डीजल, रसोई गैस, केरोसिन वगैरह पर कितना नुकसान होता है। लेकिन यह नुकसान निकालते कैसे हैं भला, अगर उन्हें यह पता ही नहीं कि ग्राहक से ली जाने वाली कुल रकम में कितना पैसा उनके पास रहना है और कितना पैसा सरकार के पास जाना है! पता सब है, लेकिन आपको बता नहीं सकते। बता देंगे तो शायद हर लीटर की बिक्री पर नुकसान होने का रोना-गाना बंद करना पड़ेगा।
जाने-माने अर्थशास्त्री और योजना आयोग के पूर्व सदस्य किरीट पारिख साहब ने फिर से एक नयी सलाह दी है। उन्होंने कहा है कि डीजल एसयूवी गाड़ियों पर सालाना 50,000 रुपये का एक नया पथ-कर (रोड टैक्स) लगना चाहिए। सामान्य पेट्रोल-डीजल कारों पर भी वे सालाना 10,000 रुपये और 20,000 रुपये का शुल्क लगाने की सलाह दे रहे हैं। इसके जवाब में ऑटो क्षेत्र उन्हें याद दिला रहा है कि इस समय एक गाड़ी की कीमत में लगभग 45% तक हिस्सा तो सरकारी करों-शुल्कों का होता है।
पारिख साहब, आप जैसे विद्वान अर्थशास्त्री यह सलाह क्यों नहीं देते कि सरकार डीजल की वाजिब कीमत वसूले? आप यह सलाह क्यों नहीं देते कि पेट्रोल-डीजल जैसी चीजें अब विलासिता की नहीं बल्कि अनिवार्य जरूरत की चीजें हैं, लिहाजा उन पर केंद्र और राज्य सरकारें करों-शुल्कों का बोझ न लादें। आप मत दें सब्सिडी नाम की खैरात और पूरे बाजार भाव से दाम वसूलें। लेकिन साथ ही ऊँचे कर भी न लादें। फिर देखते हैं कि खुदरा कीमत आज के मुकाबले घटती है या बढ़ती है।
पारिख साहब का तर्क है कि सरकार अपने करों-शुल्कों में कमी नहीं कर सकती, क्योंकि इसके बिना उसका खजाना भर नहीं पायेगा। लेकिन कम-से-कम लोगों को पारदर्शी ढंग से यह पता तो चले कि वे कितना टैक्स चुका रहे हैं। एक उपभोक्ता के रूप में यह जानना मेरा हक है कि पेट्रोल पंप पर पेट्रोल या डीजल खरीदने पर मैंने वास्तव में कितने दाम चुकाये और कितना उस पर टैक्स लगा है। जब दुनिया भर की तमाम चीजों की खरीदारी पर यह ब्योरा पाना मेरा हक है, तो पेट्रोल-डीजल पर क्यों नहीं? लेकिन सरकार और उसके हाथ की कठपुतली सरकारी तेल कंपनियाँ ऐसा करेंगी नहीं। ऐसा करेंगी तो प्रति लीटर बिक्री पर नुकसान या अंडररिकवरी के दावों की कलई खुल जायेगी। फिर जनता सरकार से सवाल पूछने लगेगी कि इस कथित नुकसान से ज्यादा तो आप हमसे टैक्स वसूल रहे हैं, फिर काहे का नुकसान! Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 27 नवंबर 2012)

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