राजीव रंजन झा
कल धनतेरस के दिन हर घर में कुछ-न-कुछ नया सामान आया होगा। सबको पता है कि धनतेरस के दिन बाजार में हर चीज महँगी हो जाती है, फिर भी लोग कुछ-न-कुछ खरीद ही लाते हैं। दिन ही कुछ ऐसा है! लेकिन आम दिनों में आप क्या करते हैं? आप चाहते हैं कि आपको अच्छा सामान मिले, लेकिन सस्ते दामों पर। मान लें कि आपको एक शर्ट खरीदनी थी, और 500 रुपये के दाम पर वह आपको पसंद आ रही थी। अगर वही शर्ट किसी सेल में आपको 250 रुपये की मिले, तो आप उसे खरीदेंगे या छोड़ देंगे? शायद लपक कर खरीदेंगे, क्योंकि पहले जिस कीमत पर आप खरीदारी के लिए तैयार थे, उससे भी आधी कीमत पर अब वह आपको मिल रही है। लेकिन शेयर बाजार में कहानी बदल जाती है।
जब 500 रुपये की शर्ट के दाम बढ़ कर 1,000 रुपये हो जायें, तो लोग उसे खरीदने के लिए टूट पड़ते हैं। और जब वही शर्ट 250 रुपये में मिलने लगे, तो लोग डर जाते हैं।
इन दोनों मामलों में एक बुनियादी फर्क है। जब आप शर्ट खरीदते हैं तो उसकी असली कीमत आंकने की कोशिश करते हैं। आप सोचते हैं कि वास्तव में इस शर्ट की वाजिब कीमत क्या होनी चाहिए। जब वह वाजिब कीमत पर या उससे कम पर मिल रही हो, तो आप खरीदते हैं, वरना छोड़ देते हैं। लेकिन शेयर बाजार में पैसा लगाने वाले ज्यादातर लोगों को इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि वे जो चीज खरीद रहे हैं, वह भला है क्या। वे केवल इस उम्मीद पर खरीदते हैं कि आज 500 रुपये में खरीद कर कल 1,000 रुपये में बेच देना है। लोग अपने शेयरों को संपत्ति के रूप में नहीं, केवल पैसा दोगुना करने वाले कागज के रूप में देखते हैं, चाहे उस कागज पर जो भी नाम लिखा हो। अब तो वह कागज भी नहीं रहा, बस कहीं किसी कंप्यूटर पर आपके नाम वो शेयर लिखे होते हैं।
इसीलिए शेयर बाजार को किसी कंपनी के वाजिब मूल्यांकन से शायद ही कभी कोई मतलब होता है। यह केवल भविष्य की उम्मीदों या आशंकाओं पर चलता है। इसीलिए जो लोग एलएंडटी के शेयर को 4,000 पर और रिलायंस के शेयर को 3,000 लपक कर खरीद रहे थे, वे आज इन्हें 800 और 1000 रुपये के भावों पर छू भी नहीं रहे होंगे। 4,000 रुपये का महँगा एलएंडटी अच्छा था, क्योंकि उसके भाव बढ़ कर 5,000 और 6,000 पर जाने की उम्मीदें दिख रही थीं। 800 रुपये का एलएंडटी खराब है, क्योंकि पता नहीं बाजार की गिरावट में कहीं ये 500 रुपये का न मिलने लगे! कंपनी क्या बनाती-बेचती है, कितना कमाती है, इन सबसे हमें क्या लेना-देना!