राजीव रंजन झा
साल के अंतिम महीने ने इस साल कुछ अलग अंदाज में दस्तक दी है। कल शुरुआती बढ़त के बाद बाजार जिस तरह से फिसला, वह अपने-आप में कोई अच्छा संकेत नहीं था। उसके बाद आज के अंतरराष्ट्रीय संकेतों को देखें, तो एकबारगी दिल दहल ही जाता है।
हालांकि वास्तव में मुझे नहीं लगता कि अमेरिकी बाजारों में एकदम से आयी इस बड़ी गिरावट के चलते भारतीय निवेशकों को ज्यादा घबराना चाहिए। बेशक विश्व अर्थव्यवस्था को लेकर बड़ी चिंताएँ हमारे सामने हैं, लेकिन कल और आज की परिस्थिति में कोई बड़ा फर्क नहीं आया है। जहाँ तक अमेरिकी बाजारों के एकदम से टूटने का सवाल है, डॉव जोंस लगातार पाँच कारोबारी दिनों में 1,277 अंक या 17% की उछाल दर्ज करने के बाद कल 7.7% फिसला है। इसमें असामान्य जैसा कुछ लगता है तो केवल यही कि पाँच कारोबारी दिनों की बढ़त का लगभग आधा हिस्सा आपने एक दिन में गँवा दिया। लेकिन वास्तव में यह बाजारों के उतार-चढ़ाव की एक आम बात है।
मगर दिसंबर की इस शुरुआत से एक जिज्ञासा मन में उभरती है कि आखिर साल का यह अंतिम महीना कैसा रहेगा। भारतीय बाजारों का पिछले 10 सालों का इतिहास देखें, तो 10 में से 8 बार दिसंबर महीने में सेंसेक्स-निफ्टी ने बढ़त ही हासिल की है। केवल 2 बार, दिसंबर 2000 और दिसंबर 2001 में भारतीय बाजार फिसले थे। और इन दोनों मौकों पर भी फिसलन की मात्रा बेहद हल्की थी। अगर आँकड़ों के इस खेल पर भरोसा करें तो अक्टूबर-नवंबर की पिटाई से लगी चोटों पर दिसंबर का महीना कुछ मरहम लगा सकता है।
लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि इतिहास हमेशा वर्तमान या भविष्य को तय नहीं करता, वह केवल स्थितियों को समझने में हमारी मदद करता है। आज की स्थितियाँ पिछले 10 सालों के इतिहास से काफी अलग नजर आ रही हैं। इसलिए यह जोड़ना जरूरी है कि दिसंबर महीने का इतिहास एक तरफ है और आज की स्थितियाँ दूसरी तरफ। हम सिर्फ यह उम्मीद कर सकते हैं कि पिछले 10-11 सालों का क्रम इस साल भी बना रहे। इसलिए इतिहास के इन आँकड़ों से ज्यादा हमें इस बात पर ध्यान रखना होगा कि विश्व बाजारों से और किस तरह की खबरें सामने आती हैं। और इस बात पर भी, कि हमारे प्रधान(वित्त)मंत्री भारतीय अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए किस तरह के उपाय करते हैं।