राजीव रंजन झा
बीते 15 सालों में पहली बार भारत के औद्योगिक उत्पादन का पहिया उल्टा घूम गया है। लोग सोच रहे थे कि अक्टूबर में औद्योगिक उत्पादन बढ़ने की दर पहले से कुछ धीमी हो कर 2-3% रहेगी, लेकिन यहाँ तो उत्पादन 0.4% घट गया। इन आंकड़ों के आने के बाद अब नवंबर महीने में भी स्थिति और बिगड़ने की आशंकाएँ जतायी जाने लगी हैं। कई विश्लेषकों ने अनुमान लगाया है कि नवंबर में औद्योगिक उत्पादन करीब 1.5% तक घट सकता है।
अक्टूबर में औद्योगिक उत्पादन को दोतरफा चोट लगी है। घरेलू और विदेशी, दोनों ही बाजारों में मांग घटने का असर पड़ा है। जैसा कि सेंट्रम ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन कमजोर रहने से जाहिर है कि मांग में कमी आयी है। इसके अलावा विदेशी मांग घटने से अक्टूबर के निर्यात में भी पिछले साल की तुलना में 12.1% की कमी आयी।
हालांकि नवंबर महीने के बारे में शायद एक अच्छी बात यह रहेगी कि त्योहारी मौसम आगे पीछे होने के चलते सितंबर-अक्टूबर के आँकड़ों में कभी-कभी जो उतार-चढ़ाव दिखता है, वैसा नवंबर में नहीं होता, क्योंकि नवंबर का उत्पादन दिसंबर की खपत पर ज्यादा निर्भर रहता है। लेकिन अगर इसके बावजूद नवंबर के आँकड़े भी सेंट्रम के अनुमानों के मुताबिक ही कमजोर रहते हैं, तो वह वाकई चिंता की बात होगी।
फिलहाल सरकार ने एक और राहत योजना की उम्मीद दिलायी है। बाजार यह भी मान कर चल रहा है कि अक्टूबर का औद्योगिक उत्पादन अनुमानों से भी काफी कमजोर रहने के चलते जल्दी ही ब्याज दरों में कटौती की एक और खुराक आरबीआई की ओर से मिल सकती है। लेकिन एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि आरबीआई ने हाल में जो भी कदम उठाये हैं, उनका फायदा अब तक बैंकों के ग्राहकों को नहीं मिला है, चाहे वे कॉर्पोरेट ग्राहक हों या खुदरा। कुछ सरकारी बैंकों ने जरूर अपनी ब्याज दरों में कमी की है, लेकिन मोटे तौर पर बैंकिंग जगत में अभी कर्ज पर ब्याज दरें घटाने को लेकर अनिच्छा ही दिख रही है। खास कर निजी बैंक बार-बार ब्याज दरों में कटौती की जरूरत वाले बयान ही दे रहे हैं, दरों में अब तक उन्होंने कोई खास कटौती की नहीं है। दरों में कटौती का मुद्दा तो है ही, कर्ज देने में भी एक बड़ी अनिच्छा है। बेशक बैंकों को भी बदलते माहौल में अपनी पूँजी की सुरक्षा के बारे में सोचने का हक है, लेकिन कहीं उनका जरूरत से ज्यादा डर अर्थव्यवस्था का पहिया रोक न दे।