राजीव रंजन झा : आज राग बाजारी में राग दरबारी का प्रवेश हो रहा है और यह कांग्रेस के सौजन्य से संभव हो रहा है।
कांग्रेस एक अद्भुत राजनीतिक दल है। क्या आप किसी अन्य ऐसे राजनीतिक दल की कल्पना कर सकते हैं, जिसके किसी लोकप्रिय चेहरे के चुनाव प्रचार में उतरने की खबरों या अटकलों पर वह दल घबरा उठता हो, तुरंत खंडन-मंडन में लग जाता हो! जिस तरह बहुत-सी बातों के लिए कहा जाता है कि ऐसा केवल भारत में संभव है, उसी तरह बहुत-सी बातें केवल कांग्रेस में संभव हैं!
कल अचानक खबरें चलने लगीं कि आगामी लोकसभा चुनाव में प्रियंका वडेरा चुनाव प्रचार में ज्यादा सक्रिय रहेंगीं। जितनी जल्दी ये खबरें चलीं, उतनी ही जल्दी कांग्रेस की ओर से इसका खंडन भी आने लगा। प्रियंका चुनाव प्रचार में ज्यादा सक्रिय हों, यह बात तो समझ में आती है। लेकिन वह जिस बेताबी से इस खबर का खंडन करने उतरी, वह बात जरा अलग ही तरह के संकेत सामने रखती है।
आखिर कांग्रेस को पता है कि आगामी चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की ओर से कठिन चुनौती मिलने वाली है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी की सेहत को लेकर चिंताएँ अब जगजाहिर हैं। इसलिए अगर वह अपने 'सर्वोच्च परिवार' एक अन्य लोकप्रिय चेहरे का उपयोग पहले की तरह केवल एक-दो लोकसभा सीटों तक सीमित रखने के बदले ज्यादा स्थानों पर करना चाहे तो इसे एक स्वाभाविक जरूरत के तौर पर देखा जा सकता है।
सवाल है कि इन अटकलों या खबरों से कांग्रेस बेचैन क्यों हो गयी? क्या कांग्रेस मानती है कि अमेठी और रायबरेली के बाहर प्रियंका गांधी चुनावी दृष्टि से उपयोगी नहीं होंगीं? अगर उपयोगी होंगीं, तो वह ज्यादा जगहों पर उनका उपयोग करना क्यों नहीं चाहती? कांग्रेस के प्रवक्ता अजय माकन ने यह कह कर स्पष्ट शब्दों में खंडन किया कि "प्रियंका केवल अमेठी और रायबरेली में चुनाव प्रचार करेंगीं। मैं इन खबरों का पूरी तरह खंडन करता हूँ।"
इन खबरों को कांग्रेस ने भाजपा की ओर से उड़ायी गयी अफवाह बता कर इन्हें नकारा है। लेकिन ऐसा लगता है कि ये खबरें खुद कांग्रेस के अंदर की खींचतान का नतीजा हैं। जिस ढंग से ये खबरें आयीं और जिस फुर्ती से इन खबरों का खंडन किया गया, उससे लगता है कि कांग्रेस के अंदर ही एक खेमा अब प्रियंका को राहुल से ज्यादा उपयोगी मानने लगा है।
लेकिन संभवतः पार्टी इस खतरे से भी वाकिफ है कि प्रियंका की सक्रियता बढ़ाने को राहुल से नाउम्मीदी के रूप में देखा जा सकता है। यह धारणा बन सकती है कि कांग्रेस ने चुनावी मोर्चे से पहले से राहुल के नेतृत्व को असफल मान लिया है। जिस फुर्ती, बेचैनी और घबराहट के साथ कांग्रेस ने इन खबरों का खंडन किया, उससे कांग्रेस की यही आशंका झलकती है।
मगर प्रश्न है कि इन अटकलों का स्रोत क्या था? हमें भूलना नहीं चाहिए कि एक प्रचार मशीनरी बीच-बीच में प्रियंका और इंदिरा की तुलना कराती रही है। अचानक ही चुनाव प्रचार में मोटरसाइकल रैली निकालते रॉबर्ट वडेरा को भी भूला नहीं जा सकता। इसलिए कांग्रेस भले ही इन अटकलों का स्रोत भाजपा में देख रही है, लेकिन संभव है कि ऐसी खबरें कांग्रेस की अंदरुनी खींचतान से बाहर आ रही हों। अगर 2014 के लोकसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस के विरुद्ध गये, तो उस समय यह खींचतान ज्यादा खुल कर सामने आ सकती है। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 15 अक्टूबर 2013)
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