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शिखर पर बाजार, नये-नये लक्ष्यों की कतार

राजीव रंजन झा : कल गुरुवार को सेंसेक्स ने जनवरी 2008 के ऐतिहासिक शिखर 21,207 को लगभग छू लिया, लगभग इसलिए कि यह केवल 2 अंक पीछे 21,205 पर अटक गया।

हालाँकि अभी यह कहना भी पूरी तरह ठीक नहीं कि अटक गया, क्योंकि कल बाजार दिन के ऊपरी स्तरों के पास ही बंद हुआ है। इसलिए 21,165 के बंद स्तर से इसका रिकॉर्ड स्तर 50 अंक दूर भी नहीं है। कहा जा सकता है कि भारतीय बाजार ने जनवरी 2008 के स्तरों को फिर पा लिया है। लेकिन असली सवाल यहाँ से आगे का है। लगभग इन्हीं स्तरों पर बाजार नवंबर 2010 में भी आ गया था, पर टिक नहीं पाया था। क्या लगभग तीन साल बाद बाजार की किस्मत कुछ अलग होगी?

अगर तकनीकी नजरिये से ऊपर के लक्ष्यों की बात करें तो निफ्टी का रिकॉर्ड स्तर 6357 पार होने के बाद अगला लक्ष्य 6400 भी हो सकता है, 6500 भी, 6700 भी और 7000 भी। आपको इनमें से जिस भी लक्ष्य पर भरोसा करने का मन हो, वह मुझे बता दीजिए। मैं आपको उस लक्ष्य पर भरोसा कराने वाली उचित तकनीकी संरचनाएँ बता दूँगा। लेकिन मन में कुछ खटक रहा है।
कहा जाता है कि शेयरों के भाव अंततः आमदनी के गुलाम होते हैं। मतलब यह कि अगर कंपनी की प्रति शेयर आय (ईपीएस) बढ़े तो देर-सबेर उस शेयर का भाव भी बढ़ेगा और इसी तरह ईपीएस घटने पर इसका उल्टा असर होगा। अगस्त में जब निफ्टी 5119 तक फिसल गया था, उस समय विश्लेषकों के पास कंपनियों की 2013-14 की पहली तिमाही के कारोबारी नतीजे थे। कमजोर पड़ते नतीजों के बीच विश्लेषकों ने 2013-14 के अनुमानों को घटाना शुरू किया।
सितंबर के अंत तक आते-आते दूसरी तिमाही के नतीजों के पूर्वानुमानों में भी आय के अनुमान घटते नजर आये। मगर इस दौरान शेयर बाजार सँभलता नजर आया। यानी आय के अनुमानों में कमी के बीच बाजार सँभलता जा रहा था। खैर, दूसरी तिमाही के अब तक के जो नतीजे रहे हैं, वे विश्लेषकों के अनुमानों से कुछ बेहतर रहे हैं, या यूँ कहें कि उतने खराब नहीं रहे हैं जैसा सोचा जा रहा था। इस बात से विश्लेषक राहत महसूस कर रहे हैं। लेकिन अगर आय में 6-8% की कमी होने के अनुमानों के बदले अब अगर लग रहा हो कि कमी केवल 2-3% की होगी, तो क्या केवल यही एक बात 5119 से 6309 तक 23.25% की उछाल को तार्किक बना सकती है?
निश्चित रूप से कई और पहलू हैं। अगस्त के अंत में रुपया डॉलर के मुकाबले काफी कमजोर हो गया था। एक डॉलर की कीमत 68.80 के रिकॉर्ड स्तर को छू गयी थी और आशंका बन रही थी कि कहीं यह कीमत 70 रुपये के भी पार न चली जाये। अगर अगस्त के अंत से अब तक शेयर बाजार सँभला है तो ठीक इसी दौरान डॉलर की कीमत भी 68.80 के शिखर से लौट कर अब 61-62 के दायरे में आ गयी है। रुपये के सँभल जाने का एक सीधा संबंध शेयर बाजार के सँभल जाने से बनता है।
इसी से जुड़ा एक पहलू यह है कि उस वक्त विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) ने बिकवाली का रास्ता पकड़ लिया था। इस मगजमारी में जाने से अभी कोई खास फायदा नहीं कि रुपये की कमजोरी के चलते एफआईआई की बिकवाली थी या इसका उल्टा था। लेकिन तब दोनों बातें साथ-साथ हो रही थीं। अब रुपया सँभला हुआ है और इस दौरान एफआईआई की लगातार अच्छी खरीदारी होती दिख रही है। इससे बाजार का हौसला बढ़ा हुआ है।
अगस्त में बाजार में यह आशंका भी थी कि अमेरिकी फेडरल रिजर्व जल्दी ही बॉण्डों की खरीदारी के अपने कार्यक्रम क्यूई-3 को धीमा करना शुर कर देगा। अभी-अभी अक्टूबर के अंत में फेडरल रिजर्व ने ताजा फैसला किया है कि वह अभी पहले जितनी मात्रा में ही बॉण्ड खरीदारी करता रहेगा। बाजार मान रहा है कि क्यूई-3 में धीमापन अब कम-से-कम कई महीनों के लिए टल गया है, क्योंकि फेडरल रिजर्व की ताजा टिप्पणियों में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सुधार की गति को लेकर चिंता दिख रही है।
इन सबके बीच घरेलू राजनीति भले गरमाती जा रही हो और लोकसभा चुनावों को लेकर तमाम जनमत सर्वेक्षणों का सिलसिला शुरू हो गया हो, लेकिन ऐसा कतई नहीं लगता कि बाजार राजनीतिक अनिश्चितता की चिंता में है। इसके बदले शायद बाजार नरेंद्र मोदी की लहर देख रहा है और उस लहर को पहले से भुना भी रहा है। पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों को बाजार लोकसभा चुनावों के सेमीफाइनल की तरह मान रहा है, जिससे राजनीतिक पंडित भी इत्तेफाक रखेंगे। इन विधानसभा चुनावों में कम-से-कम मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की स्थिति बेहतर होने के संकेतों से बाजार को लग रहा है कि विधानसभा चुनावों के नतीजे नरेंद्र मोदी के पक्ष में माहौल बना सकेंगे। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि बाजार ने नरेंद्र मोदी के साथ अपनी बहुत-सारी उम्मीदें बाँध ली हैं।
लेकिन ऊपर जिन सारी बातों की चर्चा मैंने की है, उन्हीं में खतरों के संकेत भी छिपे हैं। सरकारी दावों को रहने दें तो शायद ही कोई अर्थशास्त्री अभी यह कहने का भरोसा जुटा पा रहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था ने अपने सबसे बुरे दौर से पलटना शुरू कर दिया है। लोग यह तो मान रहे हैं कि अर्थव्यवस्था अपनी तलहटी को छू चुकी है, लेकिन इस तलहटी से पलट कर सँभलने की शुरुआत होने का दावा करना अभी मुश्किल है। जब तक अर्थव्यवस्था वापस सँभलना न शुरू करे, तब तक कंपनियों की आय में ठोस सुधार हो पाना मुश्किल है। आप यह सोच कर खुश होते रह सकते हैं कि चलो, नतीजे उतने बुरे नहीं हैं जितना सोचा था। मगर शेयर भावों को ठोस सहारा तो तभी मिलेगा, जब कंपनियों की आय वापस एक संतोषजनक गति से बढ़ने लगे।
वहीं फेडरल रिजर्व की ओर से क्यूई-3 में धीमापन केवल टला है। इस समय क्यूई-3 जारी रहने से नकदी की उपलब्धता है और इसके चलते एफआईआई के निवेश का प्रवाह जारी है। लेकिन देर-सबेर फेडरल रिजर्व क्यूई-3 को धीमा करना शुरू करेगा ही, चाहे दो महीने बाद या चार महीने बाद। जब ऐसा होगा तो एफआईआई का निवेश प्रवाह भी अटकेगा। इसकी वजह से रुपया फिर से डॉलर के मुकाबले कमजोरी पकड़ सकता है।
रही बात नरेंद्र मोदी को लेकर बाजार की उम्मीदों की। अगर भाजपा मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जीत भी जाती है तो इससे केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता की आशंकाएँ कम नहीं होतीं। ये तीनों राज्य तो पहले से भाजपा के लिए मजबूत गढ़ रहे हैं। लोकसभा के बारे में अब तक जितने भी आकलन सामने आये हैं, उनसे यही दिखता है कि कांग्रेस भले ही हार रही हो, लेकिन भाजपा जीत के दरवाजे से दूर है।
अभी दो दिन पहले ही 14 राजनीतिक दलों ने सेक्युलरिज्म के नाम पर दिल्ली में एक साझा सभा की। इससे जाहिर है कि कांग्रेस और भाजपा से अलग एक तीसरा मोर्चा नाम की खिचड़ी पकाने की कवायद जोर पकड़ रही है। इस सभा के मंच पर वे दल भी नजर आये, जो इस समय यूपीए सरकार को समर्थन दे रहे हैं।
वैसे मुझे कोई ताज्जुब नहीं होगा, अगर सांप्रदायिकता के विरोध में जुटे इन 14 दलों में से बहुत सारे नाम अगले लोकसभा चुनावों में भाजपा को अच्छी सफलता मिलने पर उसके साथ जुड़ कर सरकार का हिस्सा बन जायें। लेकिन बाजार को बड़ा झटका लग सकता है अगर कांग्रेस की हार के बावजूद भाजपा जीत न पाये।
अभी बाजार इन चिंताओं से भागने का प्रयास कर रहा है। वह अर्थव्यवस्था में भी अच्छे संकेत खोजने लगा है, अमेरिकी फेडरल रिजर्व की ओर से भी निश्चिंत हो रहा है और चुनावों में नरेंद्र मोदी को विजेता मान चुका है। जब तक यह संगीत बज रहा है, तब तक इसका मजा लें। लेकिन याद रखें कि विक्रम-वेताल के किस्से में जैसे वेताल लौट-लौट कर आता है, उसी तरह ये चिंताएँ भी लौटती रहेंगीं। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 01 नवंबर 2013)

 


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