काशिद हुसैन
सोमवार को होली है, मगर भाजपा समर्थकों ने केसरिया रंग से होली खेलना शुरू कर दी है।
5 राज्यों के चुनाव नतीजों के रुझानों में भाजपा को जो बढ़त मिल रही उससे इस बार की होली भी केसरिया ही होने वाली है। पंजाब को छोड़ कर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा को भारी बहुमत मिलती दिख रही है, जबकि गोवा में अभी टक्कर काँटे की है। भाजपा के लिए एक और बड़ी राहत की बात है कि मणिपुर जैसे राज्य में भी वो कांग्रेस को बराबर की टक्कर दे रही है। हालाँकि उम्मीद के मुताबिक पंजाब में अकाली दल के साथ गठबंधन वाली सरकार को झटका लगा है।
चुनावों से पहले और बाद में कई मुद्दों पर जानकारों ने निगाह लगा रखी थी, जिनमें सबसे प्रमुख था नोटबंदी। मगर नतीजों से साफ है इसका कोई भी बुरा असर भाजपा को नहीं झेलना पड़ा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि नोटबंदी से लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ा था, मगर भाजपा ने इस मामले में लोगों का विश्वास जीता है। यूपी के गाँवों में भी पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया, जहाँ नोटबंदी के बाद लोगों को सबसे ज्यादा परेशानी हुई। दूसरी ओर समावजादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन, अखिलेश यादव का काम और मायावती की सियासत सबका डब्बा गोल हो गया। वजहें कई हैं, मगर 2014 के आम चुनावों की ही तरह लोगों का धर्म और विशेषकर जाति से ऊपर उठ कर वोट करना भाजपा के लिए फायदेमंद रहा, क्योंकि पीएम मोदी ने इन चुनावों में भी लगातार विकास की बात की।
जानकारों का मानना है कि गोवा और पंजाब में भाजपा नहीं बल्कि सत्ता और उसकी सहयोगी पार्टियाँ हारी है। पंजाब में बदलाव देखने को मिल रहा है क्योंकि बादल सरकार के खिलाफ हवा बहुत गर्म थी। युवाओं में फैलती नशे की बीमारी और बादल परिवार के खिलाफ लोगों में काफी गुस्सा था। पंजाब में एक और चीज सामने आयी है कि आम आदमी पार्टी वो नहीं कर सकी जिसके उसे उम्मीद थी। पार्टी एक नया विकल्प देने में बिल्कुल नाकाम रही या यूँ कहा जाये कि अभी लोग आप को इस काबिल नहीं समझते। आप को उम्मीद इसलिए भी थी क्योंकि आम चुनावों में इसे पंजाब में ही सीटें नसीब हुई थी। दूसरी ओर गोवा में मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर का हारना इस बात की तस्दीक करता है कि गलतियाँ नेतृत्व ने की है। पीएम मोदी की छत्र-छाया में चुनाव लड़े जाने का फायदा भी भाजपा को मिला है। 2014 के बाद से उनकी अपनी लहर अभी भी बाकी है। बिहार को छोड़ दें तो कहीं भी उनके चेहरे ने भाजपा को निराश नहीं होने दिया। इसे मणिपुर के नतीजों से समझा जा सकता है जहाँ भाजपा का अपना कोई जनाधार नहीं है वहाँ पार्टी कांग्रेस से बराबर का मुकाबला कर रही है।
यदि बिहार और उत्तर प्रदेश चुनाव परिणामों में फर्क की बात करें तो यह संभव है कि बिहार में यूपी की तुलना में केवल दो पार्टियाँ (समाजवादी पार्टी और कांग्रेस) नहीं बल्कि जेडीयू, आरजेडी और कांग्रेस सहित सभी बड़ी पार्टियों बनाम भाजपा का मुकाबला था। जहाँ एकता में बल से महागठबंधन जीत गया। मगर यूपी में सपा और कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकीं, बल्कि सपा को तो बहुत तगड़ा झटका लगा, जिसे कांग्रेस से हाथ मिलाने की सजा के तौर पर भी देखा जा सकता है। दूसरी वजह यूपी में गठबंधन में होने में देरी भी है। कयोंकि इससे पार्टी कार्यकर्ताओं को शायद जमीनी स्तर पर गठबंधन को पहुंचाने समय नहीं मिला। साथ ही चाचा-भतीजे की गृहकलेश ने सपा की साइकिल में पंचर कर दिया।
उत्तराखंड में भी साफ जाहिर है कि कांग्रेस के खिलाफ हवा ही नतीजे लायी है। जहाँ पिछले कुछ समय में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सहित पार्टी के बड़े नेताओं द्वारा बगावत और पार्टी छोड़ कर भाजपा का दामन थामने वालों ने कलेश को उजागर किया। इससे राज्य में पार्टी की छवि भी बिगड़ी और वोटबैंक भी खिसका। हालाँकि उत्तराखंड में कांग्रेस और भाजपा का एक-एक बार सरकार बनाके रहने का चलन रहा है। मगर इस बार भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले 5 गुना अधिक सीटें मिलने की संभावना दोनों पार्टियों की ताकत की गवाह है। कुल मिला कर भाजपा को इस चुनावी सत्र में शानदार और जानदार कामयाबी मिली है, जबकि इसके विरोधियों की जान निकलती दिख रही है। पाँच में से दो और उसमें से भी एक देश के सबसे बड़े राज्य में भाजपा का वनवास खत्म होगा। (शेयर मंथन, 11 मार्च 2017)