राजीव रंजन झा :
एक रेस्टोरेंट के ग्राहक बड़े नाखुश थे। खाना अच्छा नहीं था। वेटरों को तमीज नहीं थी। ऑर्डर देने के बाद खाना कब टेबल पर आयेगा मालूम ही नहीं पड़ता था। खाने के बीच में दो रोटी और मंगा ली तो शायद दोपहर से शाम भी हो जाये आते-आते।
पर उस इलाके में कोई और रेस्टोरेंट था नहीं, इसलिए ग्राहकों को मजबूरी में वहीं खाना पड़ता था। एक के बाद एक जो लोग मैनेजर बन कर आते थे वे महाभ्रष्ट थे, लूट मचा रखी थी। ऐसे में लगातार घाटा तो होना ही था। आखिर रेस्टोरेंट बिक गया। नये मालिक को जल्द समझ में आ गया कि मामला ठीक नहीं चल रहा है। उसने एक काबिल, कर्मठ, ईमानदार, मैनेजर चुना।
नये मैनेजर ने काम सँभालते ही देखा कि रसोई टूटी-फूटी, बहुत गंदी है, सारे बर्तन-चूल्हे वगैरह खराब हालत में हैं और एक नयी रसोई बनाने की जरूरत है। उसने नयी रसोई का निर्माण शुरू करा दिया। लेकिन ग्राहकों को खाना खिलाते रहना था, इसलिए नयी रसोई बनने तक गंदी रसोई में ही बना खाना बनाया जाता रहा।
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(शेयर मंथन, 24 अगस्त 2017)