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मोदी (Modi) बनाम कांग्रेस (Congress) में बाजार को क्या पसंद है?

राजीव रंजन झा : इन विधानसभा चुनावों के नतीजों को शेयर बाजार की दिशा से कैसे जोड़ा जाये, इसे लेकर मैं लगातार उलझन में रहा और नतीजों के दिन भी यह उलझन बाकी है।

ताजा रुझान बता रहे हैं कि अनुमानों के मुताबिक गुजरात की सत्ता भाजपा को वापस मिली है, जबकि हिमाचल प्रदेश की सत्ता कांग्रेस ने उससे छीन ली है। इन रुझानों के बीच शेयर बाजार का हाल देखें तो आज सुबह के कारोबार में थोड़ी कमजोरी नजर आ रही है। इस लिहाज से यह कहा जा सकता है कि इस बार एक्जिट पोल यानी मतदान करके लौटने वाले व्यक्तियों के सर्वेक्षण के नतीजे लोगों का मिजाज पढ़ने में मोटे तौर पर सफल रहे।
लेकिन पहेली तो यही है कि इन नतीजों और शेयर बाजार के रुझान को कैसे जोड़ा जाये! जब प्रचार चलता रहा, जब पूर्वानुमान सामने आते रहे, जब मतदान के पहले-दूसरे चरण चले, तो ऐसे किसी भी मौके पर इन विधानसभा चुनावों, खास कर गुजरात के परिणामों और बाजार की दिशा के बीच कोई सीधा या उल्टा संबंध जोड़ना मुश्किल होता रहा। जानकार बस इतना कहते रहे कि बाजार इन चुनावों के नतीजों को बड़ी दिलचस्पी से देख रहा है। जनाब चुनावी घमासान में दिलचस्पी तो इस देश में हर किसी की है, इसलिए शेयर बाजार में सक्रिय लोगों की भी होगी। लेकिन परिणाम और बाजार की दिशा के बीच का संबंध? कैसे जोड़ेंगे दोनों को?
क्या नरेंद्र मोदी का तीसरी बार चुनाव जीतना शेयर बाजार को पसंद है? नहीं बताने वाले लोग शायद ही मिलें। लेकिन अगर हाँ, तो आज बाजार ठंडा क्यों है? अब वह रटा-रटाया बयान न दोहरायें कि बाजार अनुमानों पर चलता है और खबर आ जाने पर बिकवाली होती है। ऐसा होता तो हमें इस चुनावी प्रक्रिया के दौरान किसी दिन तो इस चुनावी घमासान के चलते बाजार में कोई स्पष्ट असर दिखा होता। बीते हफ्ते दो हफ्ते में किसी भी दिन बाजार की समीक्षा में किसी जानकार ने ये नहीं कहा कि आज गुजरात में मोदी की संभावनाएँ मजबूत या कमजोर होने के चलते बाजार चढ़ा या गिरा।
बात ऐसी लगती है कि बाजार को अभी-अभी यूपीए-2 से कुछ नयी उम्मीदें जगी हैं, जबकि मोदी का चेहरा बाजार को पहले से पसंद रहा है। ऐसे में दोनों के बीच की रस्साकशी में बाजार भला किस के पक्ष में उत्साह दिखाये और किससे डरे! सच तो यह है कि बाजार को एक तरफ मोदी के मजबूत होने में भी खुशी मिल रही है और दूसरी तरफ यूपीए के मजबूत बन कर उभरने पर उसे केंद्र में सुधारों की गाड़ी आगे बढ़ने की उम्मीद दिखती है। लिहाजा बाजार को दोनों ही संभावनाओं में कोई चिंता नहीं लगती।
कांग्रेस के लिए सांत्वना की बात यही है कि हिमाचल प्रदेश में वह सरकार बनाने जा रही है। गुजरात का चुनाव तो वह मतदान से पहले ही हार चुकी थी। हालाँकि कुछ विश्लेषक इसमें चुटकियाँ ले रहे हैं कि मोमबती और टोपी से जमीनी राजनीति पर कोई असर नहीं पड़ता दिख रहा। तो क्या यह निष्कर्ष निकाला जाये कि इस देश के लोगों को भ्रष्टाचार से कोई फर्क नहीं पड़ता। क्या सब इसे जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर चुके हैं? या इस रूप में देखा जाये कि जो दो विकल्प थे, उन दोनों को जनता भ्रष्टाचार के मोर्चे पर एक जैसी मानती है, इसलिए भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भाजपा फायदा नहीं उठा सकती? इस चुनावी नतीजे से भाजपा को यह आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि वह क्यों भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस से अलग छवि नहीं बना पायी है? अगर वह उम्मीद करती रही है कि भ्रष्टाचार को लेकर लोगों की नाराजगी के चलते अगले लोकसभा चुनाव में जीत उसकी झोली में अपने-आप आ टपकेगी तो हिमाचल के चुनावी नतीजों से उसकी आँखें जरा खुलनी चाहिए।
अब कयास लगना स्वाभाविक है कि नरेंद्र मोदी की गाड़ी अहमदाबाद से दिल्ली के लिए छूटेगी। लेकिन 7, रेसकोर्स रोड की लड़ाई लड़ने से पहले उन्हें 11, अशोक रोड की लड़ाई लड़नी होगी। तिकड़ी बनाने के बाद उन्हें संघीय शब्दावली में दिल्ली की चौकड़ी से भिड़ना होगा। अगर इस भिड़ंत में वे जीते तो जरूर कांग्रेस की उलझनें बढ़ेंगी। उसे यह सोचना होगा कि अगले लोकसभा चुनाव को कैसे मोदी बनाम राहुल की लड़ाई बनने से रोका जाये, क्योंकि अब तक वह ऐसी लड़ाई से बचती रही है। कम-से-कम गुजरात में तो यही दिखा था। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 20 दिसंबर 2012)

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