राजीव रंजन झा : आज बाजार की हालत देख कर यह कहने की जरूरत नहीं कि खुश तो बहुत होगे आज तुम!
बाजार की खुशी सामने दिख रही है शेयर भावों में। ओएनजीसी सालों बाद फिर से शेयर बाजार का अव्वल शेयर बन गया है बाजार पूँजी (मार्केट कैपिटलाइजेशन) के लिहाज से। जिस तरह इन्फोसिस के तिमाही नतीजों के बाद उसका शेयर एकदम से ऊपर की ओर भागा, कुछ-कुछ वैसी ही चाल ओएनजीसी में भी दिख रही है। तेल-गैस क्षेत्र के बाकी शेयर भी कल से ही जबरदस्त उत्साह दिखा रहे हैं। इन सबके पीछे है डीजल के दाम अठन्नी प्रति लीटर बढ़ा देने का सरकारी फैसला।
इस फैसले की घोषणा भले ही सरकारी तेल कंपनियों ने की हो, लेकिन इस बात में शायद ही किसी को संदेह होगा कि यह फैसला लिया तो सरकार ने ही है। तेल कंपनियों को दाम तय करने के मामले में दी गयी कागजी आजादी बस दाम बढ़ाने के पाप से खुद को बचाये रखने की एक नाकाम सरकारी कोशिश है। अगर सरकार सोचती है कि बीच में यह झीना-सा पर्दा डाल कर वह इस फैसले के राजनीतिक परिणामों से बच जायेगी तो यह उसकी गलतफहमी है। इस देश के लोगों को सब पता है कि फैसले कहाँ होते हैं। जैसी खबरें आ रही हैं, उसी के मुताबिक अगर वास्तव में सरकार हर महीने डीजल के दाम बढ़ाने का क्रम जारी रखे तो यह मद्धिम आँच पर पानी गर्म करने जैसा होगा। सरकार सोचती रहेगी कि दाम बढ़ाने से जनता में कोई प्रतिक्रिया नहीं हो रही है, लेकिन चुनाव का समय आते-आते पानी में उबाल भी आ जायेगा।
इस राजनीतिक जोखिम के बावजूद सरकार ने अगर इस रास्ते पर बढ़ने का फैसला किया है तो दो ही स्थितियाँ हो सकती हैं। पहली संभावना यह कि आर्थिक सुधारों के जोश में सरकार इस फैसले के नफा-नुकसान का ठीक से अंदाजा नहीं लगा पा रही है। दूसरी संभावना यह कि इस फैसले से संभावित राजनीतिक नुकसान की काट के लिए उसने कोई दूसरा मंत्र सोच रखा हो। शायद खाद्य सुरक्षा विधेयक उसका यह मंत्र हो।
अरसे से यह बात चलती रही है कि पिछले चुनाव में नरेगा का जादू देखने के बाद कांग्रेस 2014 में खाद्य सुरक्षा विधेयक का जादू चलाने की सोच रही है। लेकिन उसकी यह चाहत सरकार की वित्तीय मजबूरियों के सामने अटक रही थी। सरकारी खजाने का घाटा (फिस्कल डेफिसिट) इस योजना को लागू करने में रोड़ा बन रहा था।
जाहिर है कि डीजल की कीमतें बढ़ाने से सरकार को यह घाटा कम करने में मदद मिलेगी और वह खाद्य सुरक्षा विधेयक लाने की योजना को अमली जामा पहना सकेगी। लेकिन क्या यह किसी को एक हाथ से थप्पड़ मारने और दूसरे हाथ से पुचकारने जैसा नहीं है?
शायद कांग्रेस के रणनीतिकार यह सोच रहे हों कि डीजल के दाम बढ़ने से मध्यवर्ग में भले ही नाराजगी हो, लेकिन खाद्य सुरक्षा विधेयक से वे कई गुना ज्यादा संख्या वाले निम्नवर्ग को लुभा सकेंगे। गणित के हिसाब से यह बात ठीक लगती है, लेकिन वे भूल रहे हैं कि महँगाई बढ़ने पर सबसे ज्यादा चोट पिरामिड की तलहटी पर मौजूद लोगों को ही लगती है। इस बात में तो किसी को संदेह नहीं होगा कि डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में दिखेगा।
यह बात जरूर है कि डीजल के दाम बढ़ने के चलते ऊँचे सरकारी घाटे पर आरबीआई की चिंता कम होगी। लिहाजा बाजार यह उम्मीद लगायेगा कि 29 जनवरी की समीक्षा बैठक में ब्याज दरें घटाने में आरबीआई को अब कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। लेकिन आरबीआई की चिंता सरकारी घाटा भी है और महँगाई भी। डीजल के दाम बढ़ने से एक चिंता घटेगी तो दूसरी चिंता बढ़ेगी। आरबीआई लगातार कहता रहा है कि महँगाई उसकी सबसे प्रमुख चिंता है। अगर सबसे प्रमुख चिंता बढ़ने वाली हो, तो दूसरी चिंता घटने से मिली राहत कितनी कारगर होगी? अगर इस नीतिगत समीक्षा में आरबीआई ब्याज दर 0.25% अंक घटा भी दे तो यह उम्मीद नहीं की जा सकेगी कि इसके बाद वह लगातार तेजी से दरों में कटौती का सिलसिला चालू कर देगा। शायद ब्याज दरों में अगली कटौती के लिए आपको फिर से लंबा इंतजार करना पड़े।
शेयर बाजार के ज्यादातर विश्लेषक सरकार के इस तर्क से सहमत नजर आते हैं कि पेट्रोलियम पदार्थों के दाम बाजार की शक्तियों से तय होने चाहिए। हाल में प्रधानमंत्री ने भी कहा कि हमें ऊर्जा खरीदने के लिए बाजार भाव चुकाने होंगे। इस सिद्धांत पर कोई क्यों ऐतराज करे? आखिर तेल कंपनियाँ अपनी लागत से कम भाव पर डीजल क्यों बेचें? लेकिन तेल कंपनियों की इस मजबूरी का कारण उपभोक्ता नहीं, सरकारी नीतियाँ हैं।
इस देश में चाहे कोई व्यक्ति हिले या कोई सामान हिले, उस पर सरकार टैक्स लगा कर बैठी है। जी हाँ, आप अपने घर से दफ्तर आते हैं मोटरसाइकल या कार पर, तो इसके लिए खरीदे गये पेट्रोल-डीजल पर अच्छा-खासा कर चुकाते हैं। डीजल की बिक्री में एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा ट्रकों में होने वाली खपत का है। कोई भी सामान एक जगह से दूसरी जगह ले जायें तो आप बाकी तमाम शुल्कों-करों के साथ-साथ इस आवाजाही पर भी परोक्ष रूप से कर का बोझ उठाते हैं।
अभी तेल कंपनियों को डीजल पर करीब 10 रुपये प्रति लीटर का नुकसान होने की बात कही जाती है। दिल्ली में डीजल की कीमत का गणित देखते हैं। तेल कंपनियों की अपनी लागत 43.77 रुपये प्रति लीटर है। यानी अगर उन्हें प्रति लीटर इतने पैसे मिल जायें तो उन्हें कोई घाटा नहीं होगा। ग्राहक डीजल के लिए 47.15 रुपये प्रति लीटर चुका रहा है। यानी ग्राहक तो कंपनियों की लागत के मुकाबले 3.38 रुपये ज्यादा कीमत चुका ही रहा है। सब्सिडी और करों के बोझ का जो घालमेल है, उससे ग्राहक को क्या लेना-देना? वह आपकी अर्थशास्त्रीय समस्या है, आप सुलझायें। अगर आपको इससे भी ज्यादा पैसे चाहिए, तो जनता को साफ-साफ कहिए कि आपको डीजल पर ज्यादा टैक्स लगाना है। तेल कंपनियों को घाटा होने, सरकार पर सब्सिडी का बोझ होने वगैरह के नाटक बंद कीजिए। साफ-साफ कहिए कि सरकार के खर्चे ज्यादा हैं और उनके लिए जरूरी पैसा जनता की जेब से ही निकालना है। तब यह जनता की इच्छा होगी कि वह आपको इस बात की मंजूरी दे या नहीं। लेकिन जनता की जेब लूट कर उसी पैसे से लोगों को खैरात (सब्सिडी) बाँटने का ढोंग बंद होना चाहिए। Rajeev Ranjan Jha
(शेयर मंथन, 18 जनवरी 2012)
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