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अधूरा छोङ़ कर काम, राजन ने लिया विश्राम

प्रणव
बतौर गवर्नर कई पहल शुरू करने वाले रघुराम राजन अपने उत्तराधिकारी के लिए काफी चुनौतियां विरासत में छोङकर जा रहे हैं।

आखिरकार, रघुराम गोविंद राजन ने इस साल की शुरुआत से चली आ रही अटकलों पर खुद ही विराम लगाते हुए स्पष्ट कर दिया कि बतौर गवर्नर वे दूसरा कार्यकाल नहीं चाहते और वापस अकादमिक दुनिया में लौटने का मन बना रहे हैं। भारतीय मीडिया के हलकों से लेकर अमेरिकी बाजार की नब्ज़ बताने वाले "द वाल स्ट्रीट जर्नल" जैसे अख़बार भी इस सवाल से जूझ रहे थे कि इस साल सितंबर में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की कमान किसके हाथ में जाने वाली है और केंद्रीय बैंक के मौजूदा गवर्नर राजन को सरकार दूसरा कार्यकाल देगी या नहीं, जिनकी नियुक्ति पिछली सरकार के कार्यकाल में हुई थी।
यह सवाल केवल मीडिया या प्रशासनिक गलियारों में चटखारे लेकर अटकलें लगाने से नहीं जुड़ा है। ऐसे दौर में, जब भारत दुनिया की सबसे तेजी से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था के तौर पर अपनी पहचान गढ़ रहा हो और उभरते बाजारों में निवेशकों का दुलारा बन रहा हो, उस शख्स की भूमिका खासी अहम हो जाती है, जो "सरकार का बैंकर" माना जाता है। खास तौर से तब, जब निर्यात पर लगातार आघात हो रहा हो, वैश्विक हलचल से मुद्रा हिचकोले खा रही हो और इन सबसे बढ़ कर देसी बैंकिंग तंत्र ऐसी मुश्किल बीमारी से जूझ रह हो, जिसका फिलहाल कोई उपचार नजर नहीं आ रहा हो और जिसका जिम्मा भी नियामक के तौर रिजर्व बैंक पर ही हो।
देश की अर्थव्यवस्था को आगे बढाने के लिए सरकार और आरबीआई दो पहियों की तरह काम करते हैं। मगर पिछले कुछ समय से इन दोनों पहियों में सही तालमेल का अभाव रहा है। हालाँकि रिजर्व बैंक और सरकार के रिश्तों में पहले भी तल्खी आम बात रही है। कहा जाता है कि पूँजी खाते को पूर्ण परिवर्तनीय बनाने पर तनातनी को लेकर एक पूर्व वित्त मंत्री और तत्कालीन गवर्नर के बीच बातचीत तक बंद हो गई थी। मंत्री गवर्नर की शक्ल तक देखने को तैयार नहीं थे। बहरहाल ताजा मामले में देखा गया कि सत्तारूढ़ पार्टी के कुछ नेताओं ने खुलेआम गवर्नर के खिलाफ मोर्चा खोले रखा। ऐसा अतीत में कभी देखने को नहीं मिला।
बहरहाल, राजन के बायोडेटा पर किसी को भी रश्क हो सकता है। सही मायनों में गवर्नर के रूप में उन्हें जो "सेलेब्रिटी" दर्जा हासिल हुआ, वैसा रुतबा तो रिजर्व बैंक में शायद आई जी पटेल, मनमोहन सिंह और सी रंगराजन सरीखों को भी हासिल नहीं हुआ होगा। हो भी क्यों ना, नाँरियल रुबिनी के साथ वही ऐसे अर्थशास्त्री जो थे, जिन्होंने वैश्विक वित्तीय मंदी को भाँप लिया था। वह संकट भी बैंकिंग क्षेत्र से ही उपजा था। इससे मालूम पड़ता है कि बैंकिंग की नब्ज को परखने में वे कितने बड़े पारखी हैं। खैर, अब वे फँसे हुए कर्जों के दलदल में धँसे बैंकों को मुक्ति दिलाये बिना ही विदा हो रहे हों। हो सकता है कि उनका उत्तराधिकारी शायद इस काम को अंजाम दे जाये। मगर राजन शायद इससे बेहतर विदाई के हकदार थे।
खैर, राजन ने कहा है कि जब भी देश को उनकी जरूरत होगी तो वे हाजिर होंगे। बहरहाल, सरकार ने उनका शुक्रिया अदा कर उनके उत्तराधिकारियों की तलाश शुरू कर दी है, जिसके लिए पहले से कुछ नाम चल भी रहे हैं। (शेयर मंथन, 19 जून 2016)

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